महुआडांड़ (लातेहार)। दीपावली को अब चार दिन शेष रह गए हैं। गांवों में मिट्टी की बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को उम्मीद है कि इस दीपावली पर लोगों के घर आंगन इनके बनाये मिट्टी दीये से रोशन होंगे. आधुनिकता के इस दौर में मिट्टी के दीये की पहचान बरकरार रखने के कारण कुम्हारों के कमाई की उम्मीद बन जाती है. कुम्हारों का कहना है। कि हमे उम्मीद है, इस दीपावली में फिर दीया और बाती का मिलन होगा और लोगों के घर-आंगन मिट्टी के दीये से रौशन होंगे. बाजार में भी मिट्टी के दीये बिकने लगे हैं. पांच प्रकार के दिये बिक रहे है, सबसे बड़ा दिया 20 रू में तीन, उससे छोटा, 20 रू मे चार, तीसरा 10 मे चार, चौथा, 200 रू सैकड़ा, और पांचवा दीया 150 रू सैकड़ा बेचा जा रहा है. लोग ने दीये खरीद रहे है. आधुनिकता के इस दौर मे चाइनीज झालरों व मोमबत्तियों की चकाचौंध मिट्टी के दीयों के प्रकाश को गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया था. मगर पिछले दो वर्षों से लोगों की सोच में खासा बदलाव आया और एक बार फिर गांव की लुप्त होती इस कुम्हारी कला के पटरी पर लौटने के संकेत मिलने लगे हैं. मांग बढ़ी तो कुम्हारों के चेहरे खिल गए है. ईश्वर प्रजापति, गणेश कुम्हार और रंजन प्रजापति कहते है कि दरअसल पिछले वर्ष चीन के साथ तनाव को देखते हुए सोशल मीडिया पर जमकर चीनी उत्पादों के खिलाफ अभियान चला था. जिसमें दिवाली के मौके पर चाइनीज झालरों के बहिष्कार की भी बात थी. पिछ्ले साल पीएम मोदी के ‘वोकल फार लोकल’ की अपील का भी लोगों पर जबरदस्त असर पड़ा और दिवाली के मौके पर हमारे बनाये दीयों की बिक्री भी पिछले सालों की अपेक्षा जमकर हुई थी. ऐसा लग रहा है इस वर्ष भी लोग चायनीज झालरों के बजाय हमारे मिट्टी के दीयों को प्राथमिकता दे रहे है.